Holi Festival Story in Hindi

Holi katha

होली का उत्सव फागुन की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली से आठ दिन पहले होलाष्टक प्रारंभ होते हैं। होलाष्टक के दिनों में कोई भी शुभ कार्य करना अच्छा नहीं माना जाता।

अन्य भारतीय उत्सवों की तरह होली के साथ भी विभिन्न पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं।  यहाँ विभिन्न कथाओं को उद्धृत किया गया है।

नि:संदेह भारतीय व्रत एवं त्योहार हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। हमारे सभी व्रत-त्योहार चाहे वह करवाचौथ का व्रत हो या दिवाली पर्व, कहीं न कहीं वे पौराणिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं और उनका वैज्ञानिक पक्ष भी नकारा नहीं जा सकता। हमारा भरसक प्रयास रहेगा कि हम इन पन्नों में अधिक से अधिक भारतीय पर्वों व उपवासों का समावेश कर सकें।

प्रहलाद - होलिका की कथा | होली पौराणिक कथाएं

होली को लेकर हिरण्यकश्यप और उसकी बहन होलिका की कथा  अत्यधिक प्रचलित है।

प्राचीन काल में अत्याचारी राक्षसराज हिरण्यकश्यप ने तपस्या करके ब्रह्मा से वरदान पा लिया कि संसार का कोई भी जीव-जन्तु, देवी-देवता, राक्षस या मनुष्य उसे न मार सके। न ही वह रात में मरे, न दिन में, न पृथ्वी पर, न आकाश में, न घर में, न बाहर। यहां तक कि कोई शस्त्र भी उसे न मार पाए।

ऐसा वरदान पाकर वह अत्यंत निरंकुश बन बैठा। हिरण्यकश्यप के यहां प्रहलाद जैसा परमात्मा में अटूट विश्वास करने वाला भक्त पुत्र पैदा हुआ। प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था और उस पर भगवान विष्णु की कृपा-दृष्टि थी।

हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को आदेश दिया कि वह उसके अतिरिक्त किसी अन्य की स्तुति न करे। प्रह्लाद के न मानने पर हिरण्यकश्यप उसे जान से मारने पर उतारू हो गया। उसने प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय किए लेकिन व प्रभु-कृपा से बचता रहा।

हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को अग्नि से बचने का वरदान था। उसको वरदान में एक ऐसी चादर मिली हुई थी जो आग में नहीं जलती थी। हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका की सहायता से प्रहलाद को आग में जलाकर मारने की योजना बनाई।

होलिका बालक प्रहलाद को गोद में उठा जलाकर मारने के उद्देश्य से वरदान वाली चादर ओढ़ धूं-धू करती आग में  जा बैठी। प्रभु-कृपा से वह चादर वायु के वेग से उड़कर बालक  प्रह्लाद पर जा पड़ी और चादर न होने पर होलिका जल कर वहीं भस्म हो गई।  इस प्रकार प्रह्लाद को मारने के प्रयास में  होलिका की मृत्यु हो गई।

तभी से होली का त्योहार मनाया जाने लगा।

तत्पश्चात् हिरण्यकश्यप को मारने के लिए भगवान विष्णु नरंसिंह अवतार में  खंभे से निकल कर गोधूली समय (सुबह और शाम के समय का संधिकाल) में दरवाजे की चौखट पर बैठकर अत्याचारी हिरण्यकश्यप को मार डाला।

तभी से होली का त्योहार मनाया जाने लगा।



कृष्ण-पूतना की कथा | होली पौराणिक कथाएं

एक आकाशवाणी हुई कि कंस को मारने वाला गोकुल में जन्म ले चुका है। अत: कंस ने इस दिन गोकुल में जन्म लेने वाले हर शिशु की हत्या कर देने का आदेश दे दिया। इसी आकाशवाणी से भयभीत कंस ने अपने भांजे कृष्ण को भी मारने की योजना बनाई और इसके लिए पूतना नामक राक्षसी का सहारा लिया।

पूतना मनचाहा रूप धारण कर सकती थी। उसने सुंदर रूप धारण कर अनेक शिशुओं को अपना विषाक्त स्तनपान करा मौत के घाट उतार दिया। फिर वह बाल कृष्ण के पास जा पहुंची किंतु कृष्ण उसकी सच्चाई को जानते थे और उन्होंने पूतना का वध कर दिया।

यह फाल्गुन पूर्णिमा का दिन था अतः पूतनावध के उपलक्ष में होली मनाई जाने लगी। 

 

शिव पार्वती कथा | होली पौराणिक कथाएं

एक अन्य पौराणिक कथा शिव और पार्वती से संबद्ध है। हिमालय पुत्री पार्वती चाहती थीं कि उनका विवाह भगवान शिव से हो जाए पर शिवजी अपनी तपस्या में लीन थे। कामदेव पार्वती की सहायता को आए व उन्होंने अपना पुष्प बाण चलाया। भगवान शिव की तपस्या भंग हो गयी। शिव को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने अपनी तीसरी आँख खोल दी। उनके क्रोध की ज्वाला में कामदेव का भस्म हो गए। तदुपरान्तर शिवजी ने पार्वती को देखा और पार्वती की आराधना सफल हुई। शिवजी ने उन्हें अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लिया।

इस प्रकार इस कथा के आधार पर होली की अग्नि में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकत्मक रूप से जला कर सच्चे प्रेम की विजय का उत्सव मनाया जाता है।  


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पृथ्वीराज चौहान का होली से संबंधित प्रश्न 

  एक समय राजा पृथ्वीराज चौहान ने अपने दरबार के राज-कवि चन्द से कहा कि हम लोगों में जो होली के त्योहार का प्रचार है, वह क्या है? हम सभ्य आर्य लोगों में ऐसे अनार्य महोत्सव का प्रचार क्योंकर हुआ कि आबाल-वृद्ध सभी उस दिन पागल-से होकर वीभत्स-रूप धारण करते तथा अनर्गल और कुत्सित वचनों को निर्लज्जता-पूर्वक उच्चारण करते है । यह सुनकर कवि बोला- ''राजन्! इस महोत्सव की उत्पत्ति का विधान होली की पूजा-विधि में पाया जाता है । फाल्गुन मास की पूर्णिमा में होली का पूजन कहा गया है । उसमें लकड़ी और घास-फूस का बड़ा भारी ढेर लगाकर वेद-मंत्रो से विस्तार के साथ होलिका-दहन किया जाता है । इसी दिन हर महीने की पूर्णिमा के हिसाब से इष्टि ( छोटा-सा यज्ञ) भी होता है । इस कारण भद्रा रहित समय मे होलिका-दहन होकर इष्टि यज्ञ भी हो जाता है । पूजन के बाद होली की भस्म शरीर पर लगाई जाती है ।

होली के लिये प्रदोष अर्थात् सायंकाल-व्यापनी पूर्णिमा लेनी चाहिये और उसी रात्रि में भद्रा-रहित समय में होली प्रज्वलित करनी चाहिये । फाल्गुण की पूर्णिमा के दिन जो मनुष्य चित्त को एकाग्र करके हिंडोले में झूलते हुए श्रीगोविन्द पुरुषोत्तम का दर्शन करता है, वह निश्चय ही बैकुण्ठ में जाता है । यह दोलोत्सव होली होने के दूसरे दिन होता है । यदि पूर्णिमा की पिछली रात्रि मे होली जलाई जाए, तो यह उत्सव प्रतिपदा को होता है और इसी दिन अबीर गुलाल की फाग होती है । उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त इस फाल्गुणी पूर्णिमा के दिन चतुर्दश मनुओं में से एक मनु का भी जन्म है । इस कारण यह मन्वादी तिथि भी है । अत: उसके उपलक्ष्य में भी उत्सव मनाया जाता है । कितने ही शास्त्रकारों ने तो संवत् के आरम्भ एवं बसंतागमन के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है, और जिसके द्वारा अग्नि के अधिदेव-स्वरूप का पूजन होता है, वही पूजन इस होलिका का माना है इसी कारण कोई-कोई होलिका-दहन को संवत् के आरम्भ में अग्रि-स्वरूप परमात्मा का पूजन मानते हैं ।

भविष्य-पुराण में नारदजी ने राजा युधिष्ठिर से होली के सम्बन्ध में जो कथा कही है, वह उक्त ग्रन्थ-कथा के अनुसार इस प्रकार है -

नारदजी बोले- हे नराधिप! फाल्गुण की पूर्णिमा को सब मनुष्यों के लिये अभय-दान देना चाहिये, जिससे प्रजा के लोग निश्शंक होकर हँसे और क्रीड़ा करें । डंडे और लाठी को लेकर वाल शूर-वीरों की तरह गाँव से बाहर जाकर होली के लिए लकड़ों और कंडों का संचय करें । उसमें विधिवत् हवन किया जाए। वह पापात्मा राक्षसी अट्टहास, किलकिलाहट और मन्त्रोच्चारण से नष्ट हो जाती है । इस व्रत की व्याख्या से हिरण्यकश्यपु की भगिनो और प्रह्लाद की फुआ, जो प्रहलाद को लेकर अग्नि मे वैठी थी, प्रतिवर्ष होलिका नाम से आज तक जलाई जाती है ।

हे राजन्! पुराणान्तर में ऐसी भी व्याख्या है कि ढुंढला नामक राक्षसी ने शिव-पार्वती का तप करके यह वरदान पाया था कि जिस किसी बालक को वह पाए खाती जाए । परन्तु वरदान देते समय शिवजी ने यह युक्ति रख दी थी कि जो बालक वीभत्स आचरण एवं राक्षसी वृत्ति में निर्लज्जता-पूर्वक फिरते हुए पाए जाएंगे, उनको तू न खा सकेगी । अत: उस राक्षसी से बचने के लिये बालक नाना प्रकार के वीभत्स और निर्लज्ज स्वांग वनाते और अंट-संट बकते हैं ।

हे राजन्! इस हवन से सम्पूर्ण अनिष्टों का नाश होता है और यही होलिका-उत्सव है । होली को ज्वाला की तीन परिक्रमा करके फिर हास-परिहास करना चाहिए । ''

कवि चंद की कही हुई इस कथा को सुनकर राजा पृथ्वीराज बहुत प्रसन्न हुए । 


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